रविवार, 25 अक्तूबर 2020

गेहूँ के जवारे(प्राकृतिक अमृत);Wheat Grass (Natural Nector)

 



जिस प्रकार मानव शरीर के लिए लाल रक्त मुख्याधार है, ठीक उसी प्रकार गेँहू के जवारे का रस भी ईश्वर द्वारा प्रदत्त एक अनुपम औषधि है. इसे अगर हरा रक्त या प्राकृतिक अमृत भी कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.

गेहूँ के बोने पर जो एक ही पत्ता उगकर ऊपर आता है उसे जवारा कहा जाता है. नवरात्रि आदि उत्सवों में यह घर-घर में छोटे-छोटे मिट्टी के पात्रों में मिट्टी डालकर बोया जाता है.

गेहूँ के जवारे का रस, प्रकृति के गर्भ में छिपी औषधियों के अक्षय भंडार में से मानव को प्राप्त एक अनुपम भेंट है. गेहूँ के कोमल जवारों के रस से अनेक असाध्य रोगों को मिटाने के सफल प्रयोग किये हैं. उपरोक्त जवारों के रस द्वारा उपचार से 350 से अधिक रोग मिटाने के आश्चर्यजनक परिणाम देखने में आये हैं. जीव-वनस्पति शास्त्र में यह प्रयोग बहुत मूल्यवान है.

गेहूँ के जवारों के रस में रोगों के उन्मूलन की एक विचित्र शक्ति विद्यमान है. शरीर के लिए यह एक शक्तिशाली टॉनिक है. इसमें प्राकृतिक रूप से कार्बोहाईड्रेट आदि सभी विटामिन, क्षार एवं श्रेष्ठ प्रोटीन उपस्थित हैं.

इसके सेवन से असंख्य लोगों को विभिन्न प्रकार के रोगों से मुक्ति मिली है. जैसे मूत्राशय की पथरी, हृदयरोग, डायबिटीज, पायरिया एवं दाँत के अन्य रोग, पीलिया, लकवा, दमा, पेट दुखना, पाचन क्रिया की दुर्बलता, अपच, गैस, विटामिन ए, बी आदि के अभावोत्पन्न रोग, जोड़ों में सूजन, गठिया, संधिशोथ, त्वचासंवेदनशीलता (स्किन एलर्जी) सम्बन्धी बारह वर्ष पुराने रोग, आँखों का दौर्बल्य, केशों का श्वेत होकर झड़ जाना, चोट लगे घाव तथा जली त्वचा सम्बन्धी सभी रोग.

हजारों रोगियों एवं निरोगियों ने भी अपनी दैनिक खुराकों में बिना किसी प्रकार के फेरबदल किये गेहूँ के जवारों के रस से बहुत थोड़े समय में चमत्कारिक लाभ प्राप्त किये हैं. कई लोग अपना अनुभव बताते हैं कि जवारों के रस से आँख, दाँत और केशों को बहुत लाभ पहुँचता है. कब्ज मिट जाती है, अत्यधिक कार्यशक्ति आती है और थकान नहीं होती.

गेहूँ के जवारे उगाने की विधि:
मिट्टी के नये खप्पर, कुंडे या सकोरे लें. उनमें खाद मिली मिट्टी लें. रासायनिक खाद का उपयोग बिलकुल न करें. पहले दिन कुंडे की सारी मिट्टी ढँक जाये इतने गेहूँ बोयें. पानी डालकर कुंडों को छाया में रखें. सूर्य की धूप कुंडों को अधिक या सीधी न लग पाये इसका ध्यान रखें. इसी प्रकार दूसरे दिन दूसरा कुंडा या मिट्टी का खप्पर बोयें और प्रतिदिन एक बढ़ाते हुए नौवें दिन नौवां कुंडा बोयें. सभी कुंडों को प्रतिदिन पानी दें. नौवें दिन पहले कुंडे में उगे गेहूँ काटकर उपयोग में लें. खाली हो चुके कुंडे में फिर से गेहूँ उगा दें. इसी प्रकार दूसरे दिन दूसरा, तीसरे दिन तीसरा करते चक्र चलाते जायें. इस प्रक्रिया में भूलकर भी प्लास्टिक के बर्तनों का उपयोग कदापि न करें. प्रत्येक कुटुम्ब अपने लिए सदैव के उपयोगार्थ 10, 20, 30 अथवा इससे भी अधिक कुंडे रख सकता है. प्रतिदिन व्यक्ति के उपयोग अनुसार एक, दो या अधिक कुंडे में गेहूँ बोते रहें. मध्याह्न के सूर्य की सख्त धूप न लगे परन्तु प्रातः अथवा सायंकाल का मंद ताप लगे ऐसे स्थान में कुंडों को रखें. सामान्यतया आठ-दस दिन नें गेहूँ के जवा रे पाँच से सात इंच तक ऊँचे हो जायेंगे. ऐसे जवारों में अधिक से अधिक गुण होते हैं. ज्यो-ज्यों जवारे सात इंच से अधिक बड़े होते जायेंगे त्यों-त्यों उनके गुण कम होते जायेंगे. अतः उनका पूरा-पूरा लाभ लेने के लिए सात इंच तक बड़े होते ही उनका उपयोग कर लेना चाहिए. जवारों की मिट्टी के धरातल से कैंची द्वारा काट लें अथवा उन्हें समूल खींचकर उपयोग में ले सकते हैं. खाली हो चुके कुंडे में फिर से गेहूँ बो दीजिये. इस प्रकार प्रत्येक दिन गेहूँ बोना चालू रखें.



जवारा रस बनाने की विधि:-
जब समय अनुकूल हो तभी जवारे काटें. काटते ही तुरन्त धो डालें. धोते ही उन्हें कूटें. कूटते ही उन्हें कपड़े से छान लें. इसी प्रकार सभी जवारे को तीन बार कूट-कूट कर रस निकालने से अधिकाधिक रस प्राप्त होगा. चटनी बनाने अथवा रस निकालने की मशीनों आदि से भी रस निकाला जा सकता है. रस को निकालने के बाद विलम्ब किये बिना तुरन्त ही उसे धीरे-धीरें पियें. किसी सशक्त अनिवार्य कारण के अतिररिक्त एक क्षण भी उसको पड़ा न रहने दें, कारण कि उसका गुण प्रतिक्षण घटने लगता है और तीन घंटे में तो उसमें से पोषक तत्व ही नष्ट हो जाता है. प्रातःकाल खाली पेट यह रस पीने से अधिक लाभ होता है. दिन में किसी भी समय जवारों का रस पिया जा सकता है. परन्तु रस लेने के आधा घंटा पहले और लेने के आधे घंटे बाद तक कुछ भी खाना-पीना न चाहिए. आरंभ में कइयों को यह रस पीने के बाद उबकाई आती है, उलटी हो जाती है अथवा सर्दी हो जाती है. परंतु इससे घबराना नहीं चाहिए. शरीर में कितने ही विष एकत्रित हो चुके हैं यह प्रतिक्रिया इसकी निशानी है. सर्दी, दस्त अथवा उलटी होने से शरीर में एकत्रित हुए वे विष निकल जायेंगे. (Detoxification process) जवारों का रस निकालते समय मधु, अदरक, नागरबेल के पान (खाने के पान) भी डाले जा सकते हैं. इससे स्वाद और गुण का वर्धन होगा और उबकाई नहीं आयेगी. विशेषतया यह बात ध्यान में रख लें कि जवारों के रस में नमक अथवा नींबू का रस तो कदापि न डालें. रस निकालने की सुविधा न हो तो जवा रे चबाकर भी खाये जा सकते हैं. इससे दाँत मसूढ़े मजबूत होंगे. मुख से यदि दुर्गन्ध आती हो तो दिन में तीन बार थोड़े-थोड़े जवारे चबाने से दूर हो जाती है. दिन में दो या तीन बार जवारों का रस लीजिये.
रामबाण इलाज:-
गंभीर रोगों से जीवन और मरण के बीच जूझते रोगियों को प्रतिदिन चार बड़े गिलास भरकर जवा रों का रस दिया जाता है. जीवन की आशा ही जिन रोगियों ने छोड़ दी उन रोगियों को भी तीन दिन या उससे भी कम समय में चमत्कारिक लाभ होता देखा गया है. जवारे के रस से रोगी को जब इतना लाभ होता है, तब नीरोग व्यक्ति ले तो कितना अधिक लाभ होगा ?

सस्ता और सर्वोत्तमः-
जवारों का रस दूध, दही और मांस से अनेक गुना अधिक गुणकारी है. दूध और मांस में भी जो नहीं है उससे अधिक इस जवारे के रस में है. इसके बावजूद दूध, दही और मांस से बहुत सस्ता है. घर में उगाने पर सदैव सुलभ है. गरीब से गरीब व्यक्ति भी इस रस का उपयोग करके अपना खोया स्वास्थ्य फिर से प्राप्त कर सकता है. गरीबों के लिए यह ईश्वरीय आशीर्वाद है. नवजात शिशु से लेकर घर के छोटे-बड़े, अबालवृद्ध सभी जवारे के रस का सेवन कर सकते हैं. नवजात शिशु को प्रतिदिन पाँच बूँद दी जा सकती है.

जवारे के रस में लगभग समस्त क्षार और विटामिन उपलब्ध हैं. इसी कारण से शरीर मे जो कुछ भी अभाव हो उसकी पूर्ति जवारे के रस द्वारा आश्चर्यजनक रूप से हो जाती है. इसके द्वारा प्रत्येक ऋतु में नियमित रूप से प्राणवायु, खनिज, विटामिन, क्षार और शरीरविज्ञान में बताये गये कोषों को जीवित रखने से लिए आवश्यक सभी तत्त्व प्राप्त किये जा सकते हैं.

डॉक्टर की सहायता या सलाह के बिना गेहूँ के जवारों का प्रयोग आरंभ करो और खोखले हो चुके शरीर को मात्र तीन सप्ताह में ही ताजा, स्फूर्तिशील एवं तरावटदार बना दो. कई लोगों द्वारा जवारों के रस के सेवन के प्रयोग किये गये हैं. कैंसर जैसे असाध्य रोग मिटे हैं. शरीर ताम्रवर्णी और पुष्ट होते पाये गये हैं. आरोग्यता के लिए भाँति-भाँति की दवाइयों में पानी की तरह पैसे बहाना बंद करें. इस सस्ते, सुलभ तथापि अति मूल्यवान प्राकृतिक अमृत का सेवन करें और अपने तथा परिवार के स्वास्थ्य को बनाये रखकर सुखी रहें. जवारे का रस सामान्यतः 60-120 एमएल प्रति दिन या प्रति दूसरे दिन खाली पेट सेवन करना चाहिये. यदि आप किसी बीमारी से पीड़ित हैं तो 30-60 एमएल रस दिन मे तीन चार बार तक ले सकते हैं. इसे आप सप्ताह में 5 दिन सेवन करें. कुछ लोगों को शुरू में रस पीने से उबकाई सी आती है, तो कम मात्रा से शुरू करें और धीरे-धीरे मात्रा बढ़ायें. जवारे के रस में फलों और सब्जियों के रस जैसे सेब फल, अन्नानास आदि के रस को मिलाया जा सकता है. हां इसे कभी भी खट्टे रसों जैसे नीबू, संतरा आदि के रस में नहीं मिलाएं क्योंकि खटाई जवारे के रस में विद्यमान एंजाइम्स को निष्क्रिय कर देती है. इसमें नमक, चीनी या कोई अन्य मसाला भी नहीं मिलाना चाहिये. जवारे के रस की 120 एम एल मात्रा बड़ी उपयुक्त मात्रा है और एक सप्ताह में इसके परिणाम दिखने लगते हैं. गेहूँ के जवारे चबाने से गले की खारिश और मुंह की दुर्गंध दूर होती है. इसके रस के गरारे करने से दांत और मसूड़ों के इन्फेक्शन में लाभ मिलता है. स्त्रियों को जवारे के रस का डूश लेने से मूत्राशय और योनि के इन्फेक्शन, दुर्गंध और खुजली में भी आराम मिलता है. त्वचा पर जवारे का रस लगाने से त्वचा का ढीलापन कम होता है और त्वचा में चमक आती है.



सोमवार, 19 अक्तूबर 2020

एक लघु-कथा;A Short Story



जल्दी -जल्दी घर के सारे काम निपटाकर , बेटे को स्कूल छोड़ते हुए ऑफिस जाने का सोच, घर से निकल ही रही थी कि...


फिर पिताजी की आवाज़ आ गई,
"बहू, ज़रा मेरा चश्मा तो साफ़ कर दो ।"
और बहू झल्लाती हुई....
सॉल्वेंट लाकर , चश्मा साफ करने लगी। इसी चक्कर में बेटा स्कूल में और खुद आज फिर ऑफिस देर से पहुंची।

गाहे बगाहे पिताजी की यूँ, घर से निकलते हुए, पीछे से आवाज देने की आदत, बहु को अच्छी नही लगती थी।पर जानती थी कि पलँग से न उठ पाने के बावजूद पिताजी पूरे दिन में उसे यही एक दो काम ही तो कहते थे। काम छोटा सा था पर ऑफिस जाने की भी तो जल्दी होती थी सुबह सुबह।

एक दिन पति से चर्चा की।
पति की सलाह पर अब वो सुबह उठते ही पिताजी का चश्मा साफ़ करके रख देती, लेकिन फिर भी घर से निकलते समय पिताजी का बहू को बुलाना बन्द नही हुआ।
दिन बीते एक समय वो आया कि समय से खींचातानी के चलते अब बहू ने पिताजी की पुकार को अनसुना करना शुरू कर दिया ।

एक दिन ऑफिस की छुट्टी थी तो बहू ने सोचा, क्यों न घर की साफ- सफाई कर लूँ .....

सफाई करते हुए अचानक,पलँग से नीचे गिरी पिताजी की डायरी हाथ लग गई। उसे पलँग पर उठाकर रखते हुए, उत्सुकता हुई, कि देखूं तो, पिताजी सारा दिन क्या लिखते रहते है। यही सोचकर यूँही खोल दिया एक पन्ना,उस पन्ने पर लिखा था-
दिनांक 23/2/15
मेरी प्यारी बहु,
आज की इस भागदौड़ भरी ज़िंदगी में, घर से निकलते समय, बच्चे अक्सर बड़ों का आशीर्वाद लेना भूल जाते हैं। बस इसीलिए, जब तुम चश्मा साफ कर मुझे देने के लिए झुकती तो मैं मन ही मन, अपना हाथ तुम्हारे सर पर रख देता । वैसे मेरा आशीष सदा तुम्हारे साथ है बेटा......

आंखे नम हो गयी। बस अगले दिन से ही बहु-ससुर का रिश्ता मानो पिता-पुत्री में बदल गया।
अब पांच मिनट पहले तैयार होकर,बेटे को स्कूल छोड़ने के लिए, पिताजी की आवाज से पहले ही बहु चश्मे को साफ कर देती,पीने के पानी का जग उनके पलंग के सिरहाने रखती। जाते समय,लाड प्यार से दो चार वाक्यो में सारे दिन की हिदायते देती। कल उनके फल या दवाई न खाने का उलाहना और अंत मे "अच्छा बाबूजी आफिस को देरी ही रही है,चलो बेटा बाबूजी को bye बोलो" कहकर घर से निकलती।

बूढ़ी हड्डियों में न जाने कैसे ताकत सी आने लगी। दवाई वही थी पर सेहत में सुधार दस गुना होने लगा था। पिताजी स्वस्थ होने लगे थे परन्तु अचानक एक दिन हृदय गति रुक जाने से स्वर्ग सिधार गए। उनके अंत समय मे,उनके मृत देह के चेहरे पर संतुष्टि के भाव की भी पूरे परिवार में खूब चर्चा हुई थी।

आज पिताजी को गुजरे ठीक 2 साल बीत चुके हैं। आज भी बहु रोज घर से बाहर निकलते समय पिताजी का चश्मा साफ़ कर, उनके टेबल पर रख दिया करती हूँ। उनके अनदेखे हाथ से मिले आशीष की लालसा में। आज भी सुबह घर से निकलते हुए, न जाने क्यों ऐसा लगता है कि अभी आवाज आएगी-
बहु, जरा मेरा चश्मा तो साफ कर दे "
माता पिता का अदृश्य आशीष ही ईश्वर की कृपादृष्टि है। जीवित मातापिता की सेवा, मरणोपरांत किये गए पितृकर्म से कहीं अधिक उत्तम है। जीवन में हम बहुत कुछ महसूस नहीं कर पाते और जब तक महसूस करते हैं,तब तक वे हमसे बहुत दूर जा चुके होते हैं ......आइये इन बूढ़े वृक्षो को जलरूपी स्नेह तथा सेवारूपी खाद से संजोकर फिर से युवा,स्वस्थ तथा हराभरा करने का प्रयास करें.......
मित्रों आशा करता हूं ,कि यह छोटी सी कहानी आपके ह्रदय को छू गयी होगी....हमारी भाग-दौड़ भरी जिंदगी में हम अक्सर अपने जन्मदाता यानि हमारे माता-पिता को समय नहीं दे पाते हैं उन्हें हमसे बस यही आशा होती है ,कि हम कुछ पल उनके साथ गुजारें....बस इन्ही कुछ क्षणों में उन्हें सारे संसार की खुशियाँ मिल जाती हैं.....मेरा यह छोटा सा प्रयास यदि आपको अच्छा लगा हो तो इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों को शेयर करें

शनिवार, 17 अक्तूबर 2020

मां दुर्गा के नौ स्वरुप ;Nine forms of Goddess Durga

 
आदिशक्ति के नवस्वरूप 


17 अक्टूबर, 2020 यानी आज से शारदीय नवरात्रि का महापर्व प्रारंभ हो गया है।नवरात्रि में माता दुर्गा के नौ स्वरूपों को पूजा जाता है। माता दुर्गा के इन सभी नौ स्वरूपों का अपना अलग-अलग  महत्व है। माता के प्रथम स्वरूप को शैलपुत्री, द्वितीय को ब्रह्मचारिणी, तृतीय को चंद्रघण्टा, चतुर्थ को कूष्माण्डा, पंचम को स्कन्दमाता, षष्ठम को कात्यायनी, सप्तम को कालरात्रि, अष्टम को महागौरी तथा नवम स्वरूप को सिद्धिदात्री कहा जाता है। आइये आज की इस नवरात्रि विशेष पोस्ट में माता आदिशक्ति के इन नौ अलौकिक स्वरूपों के विषय में विस्तार से जानते हैं



शैलपुत्री

वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशंस्विनिम।।

मां दुर्गा का पहला स्वरूप शैलपुत्री का है। पर्वतराज हिमालय के यहां पुत्री के रूप में उत्पन्न होने के कारण इनको शैलपुत्री कहा गया। यह वृषभ पर आरूढ़ दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में  कमल का पुष्प धारण किए हुए हैं। यह नव दुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। नवरात्रि पूजन में पहले दिन इन्हीं का पूजन होता है। प्रथम दिन की पूजा में योगीजन अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योग साधना शुरू होती है।

ब्रह्मचारिणी


दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।

मां दुर्गा की नौ शक्तियों में से दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है। यहां ब्रह्म शब्द का अर्थ तपस्या से है। ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप की चारिणी यानि तप का आचरण करने वाली। ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यंत भव्य है। इसके बाएं हाथ में कमण्डल और दाएं हाथ में जप की माला रहती है। मां दुर्गा का यह स्वरूप भक्तों और सिद्धों को अनंत फल प्रदान करने वाला है। इनकी उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार और संयम की वृद्धि होती है। नवरात्रि  के दूसरे दिन इन्हीं की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित होता है। इस चक्र में अवस्थित मन वाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है।

चंद्रघण्टा


पिण्डज प्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते महयं चंद्रघण्टेति विश्रुता।।

मां दुर्गा की तीसरी शक्ति का नाम चंद्रघण्टा है। नवरात्र उपासना में तीसरे दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन व आराधना की जाती है। इनका स्वरूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है। इनके मस्तक में घण्टे के आकार का अर्धचन्द्र है। इसी कारण इस देवी का नाम चंद्रघण्टा पड़ा। इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है। इनका वाहन सिंह है। हमें चाहिए कि हम मन, वचन, कर्म एवं शरीर से शुद्ध होकर विधि−विधान के अनुसार, मां चंद्रघण्टा की शरण लेकर उनकी उपासना व आराधना में तत्पर हों। इनकी उपासना से हम समस्त सांसारिक कष्टों से छूटकर सहज ही परमपद के अधिकारी बन सकते हैं।

कूष्माण्डा


सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तुमे।।

माता दुर्गा के चौथे स्वरूप का नाम कूष्माण्डा है। अपनी मंद, हल्की हंसी द्वारा ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इनका नाम कूष्माण्डा पड़ा। नवरात्रों में चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन अनाहत चक्र में स्थित होता है। अतः पवित्र मन से पूजा−उपासना के कार्य में लगना चाहिए। मां की उपासना मनुष्य को स्वाभाविक रूप से भवसागर से पार उतारने के लिए सुगम और श्रेयस्कर मार्ग है। माता कूष्माण्डा की उपासना मनुष्य को आधिव्याधियों से विमुक्त करके उसे सुख, समृद्धि और उन्नति की ओर ले जाती है। अतः अपनी लौकिक, परलौकिक उन्नति चाहने वालों को कूष्माण्डा की उपासना में हमेशा तत्पर रहना चाहिए।

स्कन्दमाता


सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी।।

मां दुर्गा के पांचवें स्वरूप को स्कन्दमाता कहा जाता है। भगवान स्कन्द अर्थात 'कुमार कार्तिकेय' की माता होने के कारण मां दुर्गा के इस पांचवें स्वरूप को स्कन्दमाता के नाम से जाना जाता है। इनकी उपासना नवरात्रि  के पांचवें दिन की जाती है इस दिन साधक का मन विशुद्धि चक्र में स्थित रहता है। इनका वर्ण शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान हैं। इसलिए इन्हें पद्मासन देवी भी कहा जाता है। इनका वाहन भी सिंह है। नवरात्रि पूजन के पांचवें दिन का शास्त्रों में पुष्कल महत्व बताया गया है। इस चक्र में अवस्थित रहने वाले साधक की समस्त बाह्य क्रियाएं एवं चित्र वृत्तियों का लोप हो जाता है।

कात्यायनी


चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शाईलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी।।

मां दुर्गा के छठे स्वरूप को कात्यायनी कहते हैं। कात्यायनी महर्षि कात्यायन की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर उनकी इच्छानुसार उनके यहां पुत्री के रूप में पैदा हुई थीं। महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इनकी पूजा की थी इसलिए ये कात्यायनी के नाम से प्रसिद्ध हुईं। मां कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं। नवरात्रि  के छठे दिन इनके स्वरूप की पूजा की जाती है। इस दिन साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित रहता है। योग साधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान है। इस चक्र में स्थित मन वाला साधक मां कात्यायनी के चरणों में अपना सब कुछ न्यौछावर कर देता है। भक्त को सहजभाव से मां कात्यायनी के दर्शन प्राप्त होते हैं। इनका साधक इस लोक में रहते हुए भी अलौकिक तेज से युक्त होता है।

कालरात्रि


एक वेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकणी तैलाभ्यक्तशरीरणी।।
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टक भूषणा।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयड्करी।।

मां दुर्गा के सातवें स्वरूप को कालरात्रि कहा जाता है। मां कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है लेकिन ये सदैव शुभ फल देने वाली मानी जाती हैं। इसलिए इन्हें शुभड्करी भी कहा जाता है। नवरात्रि के सातवे  दिन मां कालरात्रि की पूजा का विधान है। इस दिन साधक का मन सहस्त्रार चक्र में स्थित रहता है। उसके लिए ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों के द्वार खुलने लगते हैं। इस चक्र में स्थित साधक का मन पूर्णतः मां कालरात्रि के स्वरूप में अवस्थित रहता है। मां कालरात्रि दुष्टों का विनाश और ग्रह बाधाओं को दूर करने वाली हैं। जिससे साधक भयमुक्त हो जाता है।

महागौरी

श्वेते वृषे समरूढ़ा श्वेताम्बरधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा।।

मां दुर्गा के आठवें स्वरूप का नाम महागौरी है। दुर्गा पूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है। इनकी शक्ति अमोघ और फलदायिनी है। इनकी उपासना से भक्तों के सभी कलुष धुल जाते हैं।

सिद्धिदात्री

सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।
सेव्यामाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।

मां दुर्गा की नौवीं शक्ति को सिद्धिदात्री कहते हैं। जैसा कि नाम से प्रकट है ये सभी प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करने वाली हैं। नव दुर्गाओं में मां सिद्धिदात्री अंतिम हैं। इनकी उपासना के बाद भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। देवी के लिए बनाए नैवेद्य की थाली में भोग का सामान रखकर प्रार्थना करनी चाहिए।

मित्रों आइये इस नवरात्रि महापर्व में हम माँ दुर्गा के इन नौ दिव्य स्वरूपों का पूर्ण भक्ति एवं श्रद्धा के साथ पूजन करें तथा मां आदिशक्ति से विश्व के कल्याण,शांति एवं सौहाद्र के लिए प्रार्थना करें

जगतजननी मां भवानी को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करने हेतु अधिक से अधिक इस पोस्ट को लाइक एवं शेयर करें

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गुरुवार, 15 अक्तूबर 2020

भोजन के प्रकार ;Types of food




महाभारत का युद्ध समाप्ति की ओर था, भीष्म पितामह बाणों की शैय्या पर थे, इच्छा मृत्यु का वरदान होने के कारण उनके प्राण अभी भी शेष थे ऐसे में उन्होंने अंतिम उपदेश देने के लिए पांडवों को अपने समक्ष बुलवाया, उपदेश के अंतिम चरण में भीष्म पितामह ने अर्जुन को 4 प्रकार से भोजन न करने के लिए बताया था ...

जिस भोजन की थाली को कोई लांघ कर गया हो वह भोजन की थाली नाले में पड़े कीचड़ के समान होती है ...!


जिस भोजन की थाली में ठोकर लग गई,पैर लग गया हो वह भोजन की थाली विष्ठा के समान होती है ....!

जिस भोजन की थाली में बाल या केश पड़ा हो वह दरिद्रता के समान होती है ....





भीष्म पितामह ने कहा कि अगर पति और पत्नि एक ही थाली में भोजन कर रहे हों तो उनका प्रेम एक मद के रूप में उस भोजन में आ जाता है। किसी तीसरे व्यक्ति को उस भोजन में सम्मिलित नहीं होना चाहिए। यह उसके लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है। हालांकि पति और पत्नि के लिए एक ही थाली में भोजन करने से प्रेम तो बढ़ता ही है और दोनों के लिए यह भोजन चारों धाम का पुण्य फल प्राप्त करने के समान होता है।

चारों धाम के प्रसाद के तुल्य वह भोजन हो जाता है ....
और सुनो अर्जुन .....

पुत्री अगर कुमारी हो और अपने पिता के साथ भोजन करती है एक ही थाली में तो उस पिता की कभी अकाल मृत्यु नहीं होती ....क्योंकि पुत्री पिता की अकाल मृत्यु को हर लेती है ! इसीलिए कन्या जब तक कुमारी रहे तो अपने पिता के साथ बैठकर भोजन करें ......


संस्कार दिये बिना सुविधायें देना, पतन का कारण है ...


"सुविधाएं अगर आप ने बच्चों को नहीं दी तो हो सकता है वह थोड़ी देर के लिए रोए ...
पर संस्कार नहीं दिए तो वे जीवन भर रोएंगे" .....

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2020

ब्लू फ्लैग अवार्ड ; BLUE FLAG AWARD

 


भारत के 8 समुद्र तटों को प्रतिष्ठित ब्लू फ्लैग का दर्जा (अवार्ड) दिया गया है, पूरे एशिया महाद्वीप में यह तमगा पाने वाला भारत पहला देश बन गया है.....

ये 8 समुद्र तट हैं ........

1) शिवराजपुर (द्वारका) गुजरात


2) घोघला बीच (दमन एवं दीव)



3) कासरगोड (कर्णाटक)



4) पदुबिद्री (कर्णाटक)



5) कप्पड़ (केरल)



6) रुसिकोंडा (आंध्रप्रदेश)



7) गोल्डन बीच (पुरी) ओडिशा



8) राधानगर (अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह) 



क्या है ब्लू फ्लैग बीच ???

डेनमार्क स्थित "Foundation for Environment Education" के 33 अन्तराष्ट्रीय मानकों पर खरा पर खरा उतरने वाले समुद्र तटों को "ब्लू फ्लैग बीच" का दर्जा मिलता है 

उपरोक्त सभी समुद्र तटों को पर्यावरण के अन्तराष्ट्रीय मानकों के अनुकूल सफाई एवं पर्यटन सुविधाओं से लैस होने के बाद "ब्लू फ्लैग बीच" का दर्जा दिया गया है....

भारत एशिया में यह दर्जा पाने वाला पहला देश बन गया है, वन मंत्री प्रकाश जावडेकर ने भारत की इस उपलब्धि पे प्रसन्नता प्रदर्शित की है एवं पर्यावरण मंत्रालय तथा पर्यटन विभाग को बधाई प्रेषित की है ......


मित्रों आपकी क्या राय है इन 8 समुद्र तटों में आपका पसंदीदा कौनसा है? मुझे तो पुरी (ओडिशा) का  गोल्डन बीच सबसे ज्यादा पसंद है और उसके बाद द्वारका (गुजरात) का शिवराजपुर....और इन 8 "ब्लू फ्लैग बीच" के अलावा भी हमारे देश में ऐसे कई अनछुए समुद्र तट  हैं  जो अपनी नैसर्गिक सुन्दरता के लिए प्रसिद्द है जैसे कोणार्क (ओडिशा), माधवपुर एवं चोरवाड (गुजरात)....आप भी ऐसे ही किसी अनछुए लेकिन सुन्दर समुद्र तट के बारे में जानते होंगे तो उस जानकारी को अवश्य शेयर करें 
और हाँ इस पोस्ट को शेयर करना ना भूले.......Comment Box में अपने अनमोल सुझावों से हमें अवश्य अवगत कराएँ......