प्राचीन काल में भारत में अनेक ऐसे योगी महात्मा थे जिन्होंने ५०० वर्ष या उससे अधिक आयु तक बिना किसी व्याधि के मनुष्य जीवन सफलता पूर्वक जिया।
महर्षि पतञ्जलि कृत अष्टाङ्गयोग सहित अनेक प्राचीन ग्रंथो में योग निर्दिष्ट मुद्राओं, महामुद्राओं का विस्तृत वर्णन मिलता है, ये मुद्राएं योग के प्रकांड विद्वान् ही जानते हैं। इन मुद्राओं में पारंगत होना अत्यंत दुष्कर है।
ये मुद्राएं समस्त सिद्धियाँ एवं चिरयौवन प्रदान करने वाली हैं, तथापि इन मुद्राओं का ६ माह से भी अधिक समय तक लगातार अभ्यास करने पर ही सिद्ध होती है। बिना योग्य गुरु के इन मुद्राओं के प्रथम सोपान को भी नहीं समझा जा सकता हैं।
आज हम ऐसी ही दो मुद्राओं के बारे में अपने पाठकों को जानकारी देंगे इन मुद्राओं का योग्य गुरु के मार्गदर्शन में नियमित अभ्यास करने पर मनुष्य सभी प्रकार की जरा व्याधियों से मुक्त होकर, चिरयौवन की प्राप्ति कर दीर्घ जीवन जी सकता है।
विपरीतकरणी मुद्रा
विपरीतकरणी मुद्रा में चल रहे स्वर का रोध कर विपरीत स्वर का उदय एवं शीर्षासन या सर्वांगासन लगाकर समाधिस्थ होना पड़ता है। इस क्रिया में स्वर भी विपरीत होता है तथा शरीर की मुद्रा भी विपरीत होती है अतः इसे विपरीतकरणी मुद्रा कहते हैं। जो व्यक्ति बार बार श्वास का रोध व मोचन करने में समर्थ होता है, वह दीर्घजीवन व चिरयौवन को प्राप्त कर सकता है। जरा सोचिये की गुरुत्वाकर्षण के विपरीत देह को स्थिर रखकर, विपरीत स्वर का उदय करना तत्पश्चात ध्यान लगाना कितना दुष्कर कार्य है, यह कोई सिद्ध योगी ही कर सकता है।
योगसाधना में स्वर विज्ञान को समझना अत्यंत आवश्यक होता है, समाधिवस्था में वे ही लोग पहुँच सकते है जिन्हें चल रहे स्वर का रोध व विपरीत स्वर का उदय करने का अभ्यास हो। इस स्थिति में पहुँच कर ही संतुलन की अवस्था प्राप्त होती है तत्पश्चात ही समाधी का अनुभव होता है।

खेचरी महामुद्रा
खेचरी मुद्रा के बारे में कहा जाता है की प्राचीन समय में मुनि, गंधर्व, राक्षस आदि सभी कठिन तपस्या करने वाले इस मुद्रा में सिद्धस्त होते थे, क्योंकि इस मुद्रा के सिद्ध होते ही भूख -प्यास चली जाती है। और इस तरह वे कठिन तपस्या में कई दिनों तक ध्यानमग्न हो पाते थे।
खेचरी मुद्रा कैसे की जाती है इसे जानना भी अत्यंत रोचक है। जीभ को धीरे धीरे तालु के अंदर प्रवेश कराना और फिर जीभ को ऊपर की ओर उलटकर कपाल के अंदर प्रवेश कराकर दोनों भौहॉ के मध्य में दृष्टि स्थिर करना खेचरी मुद्रा होती हैं।
जब साधक ध्यान की गहन अवस्था में होता है तब ब्रह्मरन्ध्र से निकलने वाले चैतन्य की धारा का रसना (जीभ) के माध्यम से पान करने पर साधक को अद्भुत नशे का आभास होता है, सर घूमता है तथा नेत्र स्थिर एवं अर्धनिमीलित अवस्था में आ जाते है, भूख प्यास जाती रहती है, इसे खेचरी मुद्रा की सिद्ध अवस्था कहते है। सिद्ध अवस्था में जीभ को अनेक प्रकार के स्वादों का अनुभव होता है, स्वाद विशेष का फल भी अलग-अलग होता है, शास्त्रों के अनुसार दूध का स्वाद अनुभव होने पर सभी रोग नष्ट होते है एवं घी का स्वाद अनुभव होने पर अमरत्व की प्राप्ति होती है।
इससे साधक जरा एवं रोगों से रहित होकर दृढ़काय, महाबलशाली एवं कामदेव के समान सुन्दर हो जाता है। विधि पूर्वक खेचरी मुद्रा सहित साधना करने पर साधक ६ माह में सब प्रकार के रोगों से मुक्त हो जाता है।
नोट : यह मुद्राएं सिर्फ जानकारी हेतु यहाँ बताई गई है, सिर्फ इसे पढ़कर करने का प्रयास कभी ना करें।
इन्हें केवल योग्य गुरुओ के मार्गदर्शन में ही किया जा सकता है।
खेचरी मुद्रा कैसे की जाती है इसे जानना भी अत्यंत रोचक है। जीभ को धीरे धीरे तालु के अंदर प्रवेश कराना और फिर जीभ को ऊपर की ओर उलटकर कपाल के अंदर प्रवेश कराकर दोनों भौहॉ के मध्य में दृष्टि स्थिर करना खेचरी मुद्रा होती हैं।

इससे साधक जरा एवं रोगों से रहित होकर दृढ़काय, महाबलशाली एवं कामदेव के समान सुन्दर हो जाता है। विधि पूर्वक खेचरी मुद्रा सहित साधना करने पर साधक ६ माह में सब प्रकार के रोगों से मुक्त हो जाता है।
नोट : यह मुद्राएं सिर्फ जानकारी हेतु यहाँ बताई गई है, सिर्फ इसे पढ़कर करने का प्रयास कभी ना करें।
इन्हें केवल योग्य गुरुओ के मार्गदर्शन में ही किया जा सकता है।
To the point information. I have commanded this khechari nudes. What you have wrote is absolutely true. But, everyone can't understand it.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी जानकारी
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